तंत्र दिवस गणतंत्र दिवस पर तिरंगा लहर लहर लहराये रे सुनो ध्यान से, अभिमान से पूतो, रग रग में कर्त्तव्य घोलो शान न जाने पाये रे। याद करो इस तिरंगे का वीरों ने कैसे मान बढ़ाया है, तभी किले पर प्रधानमंत्री ने यह तिरंगा फहराया है। माह जनवरी छब्बीस का हम हर रोज हीं मनाएंगेContinue reading “लहराये रे”
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आए कुछ अब्र कुछ शराब आए
आए कुछ अब्र कुछ शराब आए इस के बा’द आए जो अज़ाब आए बाम-ए-मीना से माहताब उतरे दस्त-ए-साक़ी में आफ़्ताब आए हर रग-ए-ख़ूँ में फिर चराग़ाँ हो सामने फिर वो बे-नक़ाब आए उम्र के हर वरक़ पे दिल की नज़र तेरी मेहर-ओ-वफ़ा के बाब आए कर रहा था ग़म-ए-जहाँ का हिसाब आज तुम याद बे-हिसाब आए न गई तेरे ग़म की सरदारी दिल में यूँ रोज़ इंक़लाब आए जल उठे बज़्म-ए-ग़ैर के दर-ओ-बाम जब भी हम ख़ानुमाँ-ख़राब आए इस तरह अपनी ख़ामुशी गूँजी गोया हर सम्त से जवाब आए ‘फ़ैज़’ थी राह सर-ब-सर मंज़िल हम जहाँ पहुँचे कामयाब आए one of the most plausible poem of faiz
बरखा
बादल है पुकारता आंधी देत दुहाई संभल के नाचो मोर राजा बरखा रानी हैं आई।
इंकलाब
रहगुजर हूं मैं हर एक इंकलाब का, इंतकाम हर एक दिल नशी ख्वाब का झुठला सके ना सच भी जिसे मुहाना हूं मैं उस दुआब का। यूं तो तूफान में कश्ती भी डगमगा जाती है, डूब कर जो नूतन लौटाए, मसीहा हूं मैं उस सैलाब का, समंदर का, इंकलाब का।
दिल्लगी दीवाने की
दिल्लगी दीवाने से बेहतर है कौन समझे उलझी है उसकी यादे, उसकी महरूम यादों को कौन समझे दिल के अंधेरों में उसकी तलाश जारी रहती है मगर दर्द दिले बेगैरत और उसकी ग़ुरबत को कौन समझे जीता है वह इस कशमकश में आशिक अजीब है उन काली स्याह रातों में उसकी तड़पन को कौन समझेContinue reading “दिल्लगी दीवाने की”
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